मंगलवार, 18 अगस्त 2015

सुखद संसार

देख रहा हुँ मैं बादलों का चमकना
दुर कही हो रहा है उनका बरसना
रात के इस अँधेरे में काले अंधेरे में
बादलों के मशालों का जलना
पलक झपकते ही फिर कहीं खो जाना
अंधेरे में युं ही चमकते रहना
हमको यह बतलाता है
स्थाई नहीं है कुछ भी यहाँ
फिर तु क्यों सभी से लड़ता है
अपने अहंकार की खातिर
क्यों मित्रों को खोता है
चलो छोड़े हम अपना स्वार्थ
मिलकर बनाएं हम सुखद संसार।

पौधे।

आज फिर कुछ पोधे लगाए है हमने
सींचा भी है जड़ो को उनकी
कुछ वर्षो में पोधे से पेड़ बनेंगे
उनमे फिर जब फल आएंगे
शाखें निचे झुक जाएँगी
पर स्थिरता इनकी कम न होगी
आता है जब आंधी तुफान
करते सब उनका सम्मान
जो रहता खड़ा अहंकार में अपने
मूल समेत उखड़ जाता वो जड़ से
सिख बहुत कुछ मिलती है इनसे
रहो स्थिर सदा सुख दुःख में
परोपकार का भाव हो मन में
सबको एक बराबर समझो
अहंकार के न साथ खड़े हो
सेवा करना परम धेय्य हो
पग जमीन पर सदा टीके हों।